28-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन

आकार में निराकार को देखने का अभ्यास

आकार को देखते निराकार को देखने का अभ्यास हो गया है? जैसे बाप आकार में निराकार आत्माओं को ही देखते हैं, वैसे ही बाप समान बने हो? सदैव जो श्रेष्ठ बीज़ होता है उसी तरफ ही दृष्टि और वृत्ति जाती है। तो इस आकार के बीच श्रेष्ठ कौनसी वस्तु है? निराकार आत्मा। तो रूप को देखते हो वा रूह को देखते हो? क्योंकि अब तो अन्तर को भी जान गये हो और महामन्त्र को भी जान गये हो। जान लिया, देख भी लिया। बाकी क्या रहा? बाकी स्थित रहने के बात में अभ्यासी हो? (हरेक ने अपना-अपना अनुभव बताया) ऐसे समझें अन्त तक पहले पाठ के अभ्यासी रहेंगे? अन्त तक अभ्यासी हो रहेंगे वा स्वरूप भी बनेंगे? अन्त के कितना समय पहले ये अभ्यास समाप्त होगा और स्वरूप बन जायेंगे? जब तक शरीर छोड़ेंगे तब तक अभ्यासी रहेंगे? पहले पाठ की समाप्ति कब होती है? जो समझते हैं अन्त तक अभ्यासी रहेंगे वह हाथ उठाओ। ‘आकार में निराकार देखने की बात’ पहला पाठ पूछ रहे हैं। अभी आकार को देखते निराकार को देखते हो? बातचीत किस से करते हो? (निराकार से) आकार में निराकार देखने आये-इसमें अन्त तक भी अगर अभ्यासी रहेंगे तो देही-अभिमानी का अथवा अपने असली स्वरूप का जो आनन्द वा सुख है वह संगमयुग पर नहीं करेंगे। संगमयुग का वर्सा कब प्राप्त होता है? संगमयुग का वर्सा कौनसा है? (अतीन्द्रिय सुख) यह अन्त में मिलेगा क्या, जब जाने वाले होंगे? आत्मिक- स्वरूप हो चलना वा देही हो चलना-यह अभ्यास नहीं है? अभी साकार को वा आकार को देखते आकर्षण इस तरफ जाती है वा आत्मा तरफ जाती है? आत्मा को देखते हो ना। आकार में निराकार को देखना - यह प्रैक्टिकल और नेचरल स्वरूप हो ही जाना चाहिए। अब तक शरीर को देखेंगे क्या? सर्विस तो आत्मा की करते हो ना। जिस समय भोजन स्वीकार करते हो, तो क्या आत्मा को खिलाते हैं वा शारीरिक भान में करते हैं? सीढ़ी उतरते और चढ़ते हो? सीढ़ी का खेल अच्छा लगता है? उतरना और चढ़ना किसको अच्छा लगता है? छोटे-छोटे बच्चे कहां भी सीढ़ी देखेंगे तो उतरेंगे-चढ़ेंगे ज़रूर। तो क्या अन्त तक बचपन ही रहेगा क्या? वानप्रस्थी नहीं बनेंगे? जैसे शरीर की भी जब वानप्रस्थ अवस्था होती है तो धीर-धीरे बचपन के संस्कार मिटते जाते हैं ना। तो यह उतरना-चढ़ना बचपन का खेल कब तक होगा? साक्षात्कारमूर्त तब बनेंगे जब आकार में होते निराकार अवस्था में होंगे। अगर ऐसे समझेंगे कि अन्त तक अभ्यासी रहना है; तो इस पहले पाठ को परिपक्व करने में ढीलापन आ जायेगा। फिर निरन्तर सहज याद वा स्वरूप की स्थिति की सफलता को देखेंगे नहीं। शरीर छोड़ेंगे तब सफल होंगे? लेकिन नहीं, यह आत्मिक-स्वरूप का अनुभव अन्त के पहले ही करना है। जैसे अनेक जन्म अपनी देह के स्वरूप की स्मृति नेचरल रही है, वैसे ही अपने असली स्वरूप की स्मृति का अनुभव भी थोड़ा समय भी नहीं करेंगे क्या? यह होना चाहिए?

यह पहला पाठ कम्पलीट हो ही जायेगा। इस आत्म-अभिमानी की स्थिति में ही सर्व आत्माओं को साक्षात्कार कराने के निमित्त बनेंगे। तो यह अटेन्शन रखना पड़े। आत्मा समझना - यह तो अपने स्वरूप की स्थिति में स्थित होना है ना। जैसे ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी कहने से ब्रह्मा बाप वा ब्रह्माकुमारपन का स्वरूप भूलता है क्या? चलते-फिरते ‘मैं ब्रह्माकुमार हूँ’ - यह भूलता है क्या? ज्ब यह नहीं भूलता, शिववंशी होने के नाते अपना आत्मिक-स्वरूप क्यों भूलते हो? बापदादा कहते हो ना। जब ‘शिव बाबा’ शब्द कहते हो तो निराकारी स्वरूप सामने आता है ना। तो जैसे ब्रह्माकुमार-पन का स्वरूप चलते-फिरते पक्का हो गया है, ऐसे ही अपना शिववंशी का स्वरूप क्यों भूलना चाहिए। ब्रह्माकुमार बन गये हो और शिववंशी स्वरूप अन्त में बनेंगे? बापदादा इकठ्ठा बोलते हो वा अलग बोलते हो? जब ‘बापदादा’ शब्द इकठ्ठा बोलते हो तो अपना दोनों ही ‘‘आत्मिक-स्वरूप और ब्रह्माकुमार का स्वरूप’’ दोनों ही याद नहीं रहता? यह अभ्यास पहले से ही कम्पलीट करना पड़े। अन्त के लिए तो और बहुत बातें रह जायेंगी। सुनाया था ना - अन्त के समय नई-नई परीक्षायें आयेंगी, जिन परीक्षाओं को पास कर सम्पूर्णता की डिग्री लेंगे। अगर यह पहला पाठ ही स्मृति में नहीं होगा तो सम्पूर्णता की डिग्री भी नहीं ले सकेंगे। डिग्री न मिलेगी तो क्या होगा? धर्मराज की डिक्री निकलेगी। तो यह अभ्यास बहुत पक्का करो। जैसे पहला विकार एकदम संकल्प रूप से भी निकालने का निश्चय किया, तो उसमें विजयी मैजारिटी बने हैं ना। अपनी प्रतिज्ञा के ऊपर मदार है। जिस बात की फोर्स से प्रतिज्ञा करते हो, तो वह प्रतिज्ञा प्रैक्टिकल रूप ले लेती है। अगर समझते हो यह अन्त का कोर्स है, तो फिर रिजल्ट क्या होती है? प्रैक्टिकल नहीं होती है, प्रैक्टिस ही रह जाती है। यह बातें तो पहले क्रास करनी हैं। अगर अन्त तक क्रास करेंगे तो कम्पलीट अतीन्द्रिय सुख का वर्सा कब प्राप्त करेंगे? कई बातें ऐसी हैं जिसमें हरेक ने अपनी-अपनी यथा शक्ति क्रास करके प्रैक्टिस के बजाय प्रैक्टिकल में लाया है। कोई किस बात में, कोई किस बात में। जैसे लौकिक देह के सम्बन्ध की बात कोई प्रैक्टिस में है, कोई प्रैक्टिकल में एक ही अलौकिक-पारलौकिक सम्बन्ध के अनुभव में है। स्वप्न में भी कभी संकल्प रूप में देह के सम्बन्धी तरफ वृत्ति और दृष्टि न जाये। इसमें पाण्डवों को भी क्रास करना है। लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करने की स्मृति आती है तो वह हुआ कल्याण अर्थ। आप तो मधुबन भट्ठी में रहने वाले हो ना। तो पहली सीढ़ी पास होनी चाहिए ना। जो एक सेकेण्ड पहले नहीं था वह क्या अब के सेकेण्ड में नहीं हो सकते हो? मधुबन के पाण्डव हैं, यूनिवार्सिटी के स्टूडेन्ट हैं। कोई छोटी गीता पाठशाला के स्टूडेन्ट नहीं हैं। तो इन्हों को कितना नशा रहना चाहिए! इन्हों की पढ़ाई कितनी ऊंची है! ऐसी कमाल करके दिखाना जो एक सेकेण्ड पहले आप लोगों से नाउम्मीद रखें वह दूसरे सेकेण्ड सभी उम्मीदवार बन जायें। महावीर सेना ने क्या किया? सारी लंका को जब जला दिया। तो सीढ़ी नहीं पास कर सकते हैं? पहली सीढ़ी तो बताई। दूसरी सीढ़ी है - कर्मेन्द्रियों पर विजय। तीसरी है - व्यर्थ संकल्पों और विकल्पों के ऊपर विजय। यह है लास्ट। लेकिन दूसरे को भी क्रास कर लेना चाहिए। उमंग-उत्साह से कह सको कि - हां, हम फुल पास हैं। दूसरी सीढ़ी तो बहुत सहज है। जब मरजीवा बन गये तो यह पुरानी कर्मेन्द्रियों की आकर्षण क्यों? मरजीवा बने तो खत्म हो गये ना। जैसे जन्म-पत्री बतलाते हैं- फलाने का इस आयु तक शरीर है, फिर खलास। लेकिन अगर कोई दान-पुण्य करेंगे तो नई जन्म के रीति नई आयु शुरू हो जायेगी। तो ऐसे मरजीवा बने अर्थात् सब तरफ से मर चुके ना। पुरानी आयु समाप्त हुई। अभी तो नया जन्म हुआ उसमें हुए ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियां तो ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियों की कर्मेन्द्रियों पर विजय न हो -- यह हो सकता है क्या? पिछला हिसाब है तो चुक्तू हुआ। जब मरजीवा बने, ब्रह्माकुमार बन गये तो फिर कर्मेन्द्रियों के वश कैसे हो सकते? ब्रह्माकुमार के नये जीवन में ‘‘कर्मेन्द्रियों के वश होना क्या चीज़ होती है’’, इस नॉलेज से भी परे हो जाते। अभी शूद्रपन से मरजीवा नहीं बने हैं क्या वा अभी बन रहे हैं? शूद्रपन का ज़रा भी सांस अर्थात् संस्कार कहाँ अटका हुआ तो नहीं है? कोई-कोई का श्वास छिप जाता है जो फिर कुछ समय बाद प्रकट हो जाता है। यहाँ भी ऐसे है क्या? पुराने संस्कार अटके हुये होंगे; तो मरजीवा बने हो - ऐसे कहेंगे? मरजीवा न बने तो ब्रह्माकुमार कैसे कहेंगे। मरजीवा तो बने हो ना। बाकी मन्सा संकल्प - यह तो ब्रह्माकुमार बनने के बाद ही माया आती है। शूद्रकुमार के पास माया आती है क्या? आप मूंझते क्यों हो? बोलो कि - ‘‘मरजीवा बने हैं। मरजीवा बनने बाद माया को चैलेन्ज किया है, इसलिए माया आती है। उनसे लड़कर हम विजयी बनते हैं।’’ ऐसे क्यों नहीं कहते हो। महावीर हो तो अपना नशा तो कायम रखो ना। जब अपने को ब्रह्माकुमार समझेंगे तो फिर यह जो सेकेण्ड सीढ़ी है ‘कर्मेन्द्रियों का आकर्षण’, उससे भी पार हो जायेंगे। ब्रह्माकुमार वा शिवकुमार - यह दोनों की स्मृति रखने से कभी भी फेल नहीं हो सकेंगे। क्योंकि ब्रह्माकुमार समझने से फिर ब्रह्माकुमार के कर्त्तव्य, ब्रह्माकुमार के गुण क्या हैं - वह भी स्मृति में रहते हैं ना। तो अब दूसरी और तीसरी सीढ़ी क्रास करके पास विद् ऑनर बनने के स्मीप आने के लिए यह भट्ठी की है। तो भट्ठी के समाप्ति के साथ यह भी समाप्त कर देनी है। जैसे देखो, स्थान के आधार पर स्थिति बनती है। यह मधुबन का स्थान ऐसा है जो स्थिति को ही बदल लेता है ना। स्थान का स्थिति पर असर होता है। और हरेक को अपने स्थान का नशा कितना रहता है! अपने देश का, अपने हद के निवास-स्थान (घर) का नशा नहीं होता है? अगर बड़ी कोठी वा महल में निवास करने वाला होगा तो स्थान का स्थिति पर असर होता है। तो आप सभी से श्रेष्ठ स्थान पर हो; तो इसका भी असर स्थिति पर होना चाहिए। श्रेष्ठ वरदान-भूमि के निवासी हैं, तो अपनी स्थिति भी सदा सभी को देने वाली बनानी चाहिए।

वरदान वह दे सकता है जो साक्षात्कारमूर्त होगा। कोई भक्त को भी वरदान प्राप्त होता है तो साक्षात्कारमूर्त द्वारा होता है ना। तो साक्षात् और साक्षात्कारमूर्त बनने से ही वरदाता मूर्त बन सकेंगे। बाप दाता के बच्चे दाता बनना है। लेने वाले नहीं लेकिन देने वाले। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में देना है। जब दाता बन जायेंगे तो दाता का मुख्य गुण कौनसा होता है? उदारचित्त। जो औरों के उद्धार के निमित्त होंगे, तो वह अपना नहीं कर सकेंगे? सदैव ऐसे समझो कि हम दाता के बच्चे हैं, एक सेकेण्ड भी देने के सिवाय न रहे। उसी को कहा जाता है महादानी। सदैव देने के द्वार खुले हों। जैसे मन्दिर का दरवाजा सदैव खुला रहता है। यह तो आजकल बन्द करते हैं। तो ऐसे दाता के बच्चे का देने का द्वार कभी बन्द नहीं होता। हर सेकेण्ड, हर संकल्प चेक करो - ‘‘कुछ दिया? लिया तो नहीं?’’ देते जाओ। लेना है बाप से, वह तो ले ही लिया, अब देना है। लेने का कुछ रहा है क्या? सभी कुछ जो लेना था वह ले लिया। बाकी रह गया देना। जितना-जितना देने में बिज़ी होंगे, तो यह बातें जिसको क्रास करना मुश्किल लगता है, वह बहुत सहज हो जायेंगी। क्योंकि महादानी बनने से महान् शक्ति की प्राप्ति स्वत: होती है। तो यह कार्य तो अच्छा है ना। देने के लिए तो भण्डारा भरपूर है ना। इसमें फुल पास हैं? जिसमें फुल पास हो उसको राइट लगाते जाओ। जिसमें समझते हो फुल पास होना है, तो भट्ठी से फुल पास हो निकलना। जितना दाता बनते हैं उतना भरता भी जाता है। भण्डारा भरपूर है तो क्यों न दाता बनें। इसको ही कहा जाता है निरन्तर रूहानी सेवाधारी। तो इस भट्ठी से निरन्तर रूहानी सेवाधारी हो निकलना।

जब तक त्याग नहीं तब तक सेवाधारी हो नहीं सकेंगे। सेवाधारी बनने से त्याग सहज और स्वत: हो जायेगा। सदैव अपने को बिज़ी रखने का यही तरीका है। संकल्प से, बुद्धि से, चाहे स्थूल कर्मणा से जितना फ्री रहते हो उतना ही माया चान्स लेती है। अगर स्थूल और सूक्ष्म - दोनों ही रूप से अपने को सदैव बिज़ी रखो तो माया को चान्स नहीं मिलेगा। जिस दिन स्थूल कार्य भी रूचि से करते हो उस दिन की चेकिंग करो तो माया नहीं आयेगी, अगर देवता होकर किया तो। अगर मनुष्य होकर किया, फिर तो चान्स दिया। लेकिन सेवाधारी हो और देवता बन अपनी रूचि, उमंग से अपने को बिज़ी रखकर देखो तो कभी माया नहीं आवेगी। खुशी रहेगी। खुशी के कारण माया साहस नहीं रखती सामना करने का। तो बिज़ी रखने की प्रैक्टिस करो। कभी भी देखो आज बुद्धि फ्री है, तो स्वयं ही टीचर बन बुद्धि से काम लो। जैसे स्थूल कार्य की डायरी बनाते हो, प्रोग्राम बनाते हो कि आज सारा दिन यह-यह कार्य करेंगे, फिर चेक करते हो। इसी प्रमाण अपनी बुद्धि को बिज़ी रखने का भी डेली प्रोग्राम होना चाहिए। प्रोग्राम से प्रोग्रेस कर सकेंगे। अगर प्रोग्राम नहीं होता है तो कोई भी कार्य समय पर सफल नहीं होता। डेली (रोज़) डायरी होनी चाहिए। क्योंकि सभी बड़े ते बड़े हो ना। बड़े आदमी प्रोग्राम फिक्स करके फिर कहाँ जाते हैं। तो अपने को भी बड़े ते बड़े बाप के समझकर हर सेकेण्ड का भी प्रोग्राम फिक्स करो। जिस बात की प्रतिज्ञा की जाती है, तो उसमें विल- पावर होती है। ऐसे ही सिर्फ विचार करेंगे, उसमें विल-पावर नहीं होगी। इसलिए प्रतिज्ञा करो कि यह करना ही है। ऐसे नहीं कि देखेंगे, करेंगे। करना ही है। जैसे स्थूल कार्य कितना भी ज्यादा हो लेकिन प्रतिज्ञा करने से कर लेते हो ना। अगर ढीला विचार होगा, न करने का ख्याल होगा तो कभी पूरा नहीं करेंगे। फिर बहाने भी बहुत बन जाते हैं। प्रतिज्ञा करने से फिर समय भी निकल आता है और बहाने भी निकल जाते हैं। आज बुद्धि को इस प्रोग्राम पर चलाना ही है - ऐसी प्रतिज्ञा करनी है। भिन्न-भिन्न समस्याएं, पुरूषार्थहीन बनने के व्यर्थ संकल्प, आलस्य आदि आयेंगे लेकिन विल-पावर होने कारण सामना कर विजयी बन जायेंगे। यह भी डेली डायरी बनाओ, फिर देखो, कैसे रूहानी राहत देने वाले रूह सभी को देखने में आयेंगे। रूह ‘आत्मा’ को भी कहते हैं और रूह ‘इसेन्स’, को भी कहते हैं। तो दोनों हो जायेंगे। दिव्य गुणों के आकर्षण अर्थात् इसेन्स, वह रूह भी होगा और आत्मिक-स्वरूप भी दिखाई देंगे। ऐसा लक्ष्य रखना है। तो रूप की विस्मृति, रूह की स्मृति - इस भट्ठी से बनाकर निकलना। बिल्कुल ऐसा अनुभव हो जैसे यह शरीर एक बाक्स है। इनके अन्दर जो हीरा है उनसे ही सम्बन्ध-स्नेह है। ऐसा अनुभव करना। तो निवास-स्थान का भी आधार लेकर स्थिति को बनाओ।

मधुबन-निवासी अर्थात् मधुरता और बेहद के वैरागी। जो बेहद के वैरागी होंगे वह रूह को ही देखेंगे। तो चलन में मधुरता और मन्सा में बेहद की वैराग्य वृत्ति हो। दोनों स्मृति रहें तो ‘पास विद् ऑनर्स’ नहीं होंगे? यह दोनों क्वालीफिकेशन अपने में धारण करके निकलना।

यह संगमयुग का सुहावना समय जितना ज्यादा हो उतना अच्छा है। क्योंकि समझते हो सारे - कल्प में यह बाप और बच्चों का मिलन फिर नहीं होगा। इसलिए समझते हो यह संगम का समय लम्बा हो जाये, न कि आपकी वीकनेस के कारण। सदैव यही लक्ष्य रखो कि एवररेडी रहें। बाकी यह अतीन्द्रिय सुख का वर्सा निरन्तर अनुभव करने के लिए रहे हुए हैं, न कि अपनी कमजोरियों के लिये। आप लोगों के लिए यह पुरानी दुनिया जैसे विदेश है। कई लोग विदेश की चीज़ को टच नहीं करते हैं, समझते हैं अपने देश की चीज़ को प्रयोग करें। तो इस पुरानी दुनिया अर्थात् विदेशी चीज़ों को टच भी नहीं करना है। स्वदेशी हो वा विदेशी चीज़ों से आकर्षित होते हो? सदैव समझते हो हम स्वदेशी हैं, यह विदेश की चीज़ टच भी नहीं करनी है? ऐसा अपने ऊंचे देश का, आत्मा के रूप से परमधाम देश है और इस ईश्वरीय परिवार के हिसाब से मधुबन ही अपना देश है, दोनों देश का नशा रखो। हम स्वदेशी हैं, विदेश की चीजों को टच भी नहीं कर सकते। अब पावरफुल रचयिता बनो। रचयिता ही कमज़ोर होंगे तो रचना क्या रचेंगे। अलंकारी बनकर निकलना है। निरन्तर एकरस स्थिति में स्थित हो दिखाने का इग्जैम्पल बनना, जो सभी को साक्षात्कार हो। द्वापर में तो भक्त लोग साक्षात्कार करेंगे, लेकिन यहाँ सारा दैवी परिवार आप साक्षात् मूर्त से साक्षात्कार करे। जमा करना है। कमाया और खाया - यह तो 63 जन्मों से करते आये। अब जमा करने का समय है। गँवाने का नहीं है। अच्छा।

जो कर्म, संकल्प करो - अपने में लाइट होने से वह कर्म यथार्थ होगा। ऐसे लाइट रूप अथवा ट्रान्सपेरेन्ट बनो। यह भट्ठी पाण्डव भवन को ट्रान्सपेरेन्ट चैतन्य प्रदर्शनी बनायेगी और सभी को साक्षात्कार करने की आकर्षण हो कि यह (चैतन्य प्रदर्शनी) जाकर देखें। सभी बातों में विन करना ही है। वन नम्बर में आना है। पुराने संकल्प, संस्कार समेटकर खत्म करना अर्थात् समा देना है, जो फिर इमर्ज न हों। जो चाहे सो कर सकते हो, लेकिन चाहना में विल-पावर हो। जितनी वृत्ति पावरफुल होगी उतना वायुमण्डल भी पावरफुल बनता है। जिस समय कोई में भी वीकनेस आती है, तो पावरफुल वृत्ति का सहयोग मिलने से वह आगे बढ़ सकते हैं। बाप एकरस है, तो बाप के समान बनना है। कुछ भी हो जाये, तो भी उसको खेल समझकर समाप्त करना। खेल समझने से खुशी होती है। अभी का तिलक जन्म-जन्मान्तर का तिलकधारी वा ताजधारी बनाता है। तो सदैव एकरस रहना है। फालो फादर करना है। जो स्वयं हर्षित है वह कैसे भी मन वाले को हर्षित करेगा। हर्षित रहना - यह तो ज्ञान का गुण है। इसमें सिर्फ रूहानियत एड करना है। हर्षितपन का संस्कार भी एक वरदान है, जो समय पर बहुत सहयोग देता है। अपने कमजोर संकल्प गिराने का कारण बन जाते हैं। इसलिए एक संकल्प भी व्यर्थ न जाये। क्योंकि संकल्पों के मूल्य का भी अभी मालूम पड़ा है। अगर संकल्प, वाचा, कर्मणा - तीनों अलौकिक होंगे तो फिर अपने को इस लोक के निवासी नहीं समझेंगे। समझेंगे कि इस पृथ्वी पर पांव नहीं हैं अर्थात् बुद्धि का लगाव इस दुनिया में नहीं है। बुद्धि रूपी पांव देह रूपी धरती से ऊंचा है। यह खुशी की निशानी है। जितना-जितना देह के भान की तरफ से बुद्धि ऊपर होगी उतना वह अपने को फरिश्ता महसूस करेगा। हर कर्त्तव्य करते बाप की याद में उड़ते रहेंगे तो उस अभ्यास का अनुभव होगा। स्थिति ऐसी हो जैसे कि उड़ रहे हैं। अच्छा।